कविताएं...
मिट्टी के ढेर पे बैठा हूँ
कब मिटटी में मिल जाऊं
मुझे पता है
अपनी औकात का...
🙂🙂🙂🙂🙂🙂🙂😀🙂🙂🙂
में खुश था
लोग मुझे पहचानते थे
मशहूर होने का शौक नहीं था मुझे
किसी ने अछाईयों से जाना
किसी ने बुरा भला कहा
जिंदगी भी
कितनी अजीब है...
जिसको जितनी जरुरत थी
उसने उतना ही पहचाना मुझे
अजीब सी
काश म काश है ये जिंदगी
जब जीतते थे
पराये भी अपने थे
अब ये आलम है की
अपने भी पराये हैं
एक घड़ी
घर में क्या टांकी
घर ही मेरे पीछे पड़ गया .
चाहा था
एक घर बनाउंगा
सुकून से बैठने के लिए
घर की चाहतों ने
मजदूर बना डाला
अपनी बात
क्या करें ए जिंदगी
सबका अपना अपना रोना है
वो बचपन वाली ख़ुशी
अब मिलती नहीं
जीवन की भाग-दौड़ में
रिश्ते रिश्ते न रहे
उम्मीदों ने रिश्ते हिला दिए
वो सवेरा
अब भी याद आता है
जब नई उम्मीद के सहारे
दुःख भी काट लेते थे
बहुत दूर
निकल गए हम
रिश्तो का बोझ ढोते ढोते..
मिटा दिया है खुद को हमने,
अपनों को पाते पाते..
लोग नहीं जानते
हम मुस्कुराते भी हैं
अपना दर्द छुपाते छुपाते..
😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀😀
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