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गायत्री शाप विमोचनम्

श्री गायत्री शाप विमोचनम्

शाप मुक्ता हि गायत्री चतुर्वर्ग फल प्रदा। अशाप मुक्ता गायत्री चतुर्वर्ग फलान्तका॥

ॐ अस्य श्री गायत्री। ब्रह्मशाप विमोचन मन्त्रस्य। ब्रह्मा ऋषिः। गायत्री छन्दः।

भुक्ति मुक्तिप्रदा ब्रह्मशाप विमोचनी गायत्री शक्तिः देवता। ब्रह्म शाप विमोचनार्थे जपे
विनियोगः॥

ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः। तां पश्यन्ति धीराः सुमनसां वाचग्रतः।

ॐ वेदान्त नाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमही। तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात्।

ॐ गायत्री त्वं ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव॥

ॐ अस्य श्री वसिष्ट शाप विमोचन मन्त्रस्य निग्रह अनुग्रह कर्ता वसिष्ट ऋषि। विश्वोद्भव
गायत्री छन्दः।

वसिष्ट अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। वसिष्ट शाप विमोचनार्थे जपे विनियोगः॥

ॐ सोहं अर्कमयं ज्योतिरहं शिव आत्म ज्योतिरहं शुक्रः सर्व ज्योतिरसः अस्म्यहं। (इति युक्त्व
योनि मुद्रां प्रदर्श्य गायत्री त्रयं पदित्व )।

ॐ देवी गायत्री त्वं वसिष्ट शापत् विमुक्तो भव॥

ॐ अस्य श्री विश्वामित्र शाप विमोचन मन्त्रस्य नूतन सृष्टि कर्ता विश्वामित्र ऋषि।
वाग्देहा गायत्री छन्दः।

विश्वामित्र अनुग्रहिता गायत्री शक्तिः देवता। विश्वामित्र शाप विमोचनार्थे जपे
विनियोगः॥

ॐ गायत्री भजांयग्नि मुखीं विश्वगर्भां यदुद्भवाः देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीं
इष्टकरीं प्रपद्ये।

यन्मुखान्निसृतो अखिलवेद गर्भः। शाप युक्ता तु गायत्री सफला न कदाचन।

शापत् उत्तरीत सा तु मुक्ति भुक्ति फल प्रदा॥ प्रार्थना॥ ब्रह्मरूपिणी गायत्री दिव्ये
सन्ध्ये सरस्वती।

अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोने नमोऽस्तुते। ब्रह्म शापत् विमुक्ता भव। वसिष्ट शापत् विमुक्ता भव।
विश्वामित्र शापत् विमुक्ता भव॥


गायत्री साधना और उपासना

गायत्री उपासना कभी भी, किसी भी स्थिति में की जा सकती है । हर स्थिति में यह लाभदायी है, परन्तु विधिपूर्वक भावना से जुड़े न्यूनतम कर्मकांडों के साथ की गई उपासना अति फलदायी मानी गई है । तीन माला नायत्री मंत्र का जप आवश्यक माना गया है । शौच-स्नान से निवृत होकर नियत स्थान, नियत समय पर सुखासन में बैठकर नित्य गायत्री उपासना की जानी चाहियें ।


उपासना का विधि विधान इस प्रकार है –


1. ब्रहम संध्या – जो शरीर व मन को पवित्र बनाने के लिये की जाती है । इसके अन्तर्गत पाँच कृत्य करने पड़ते है ।

अ. पवित्रीकरण – बाँए हाथ में जल लेकर उसे दाहिने हाथ से ढक लिया जाए । पवित्रीकरण का मंत्रोच्चारण किया जाए । तदुपरांत उस ज को सिर तथा शरीर पर छिड़क लिया जाये ।


ऊँ अपवित्रः पवित्रोवा, सर्वावस्थां गतोडपि वा ।

यः स्मरेत्पुणडरीकाक्षं, स बाहृाभ्यन्तरः शुचिः ।।

ऊँ पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु पुण्डरीकाक्षः, पुनातु ।



आचमन – वाणी, मन व अन्तःकरण की शुद्घि के लिये चम्मच से तीन बार जल का आचमन करें । हर मंत्र के साथ एक आचमन किया जाये ।


ऊँ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।। 1 ।।

ऊँ अमृतापिधानमसि स्वाहा ।। 2 ।।

ऊँ सत्यं यशः श्रीर्मयि, श्रीः श्रयतां स्वाहा ।। 3 ।।



स. शिखा स्पर्श एवं विंदन – शिखा के स्थान को भीगी पाँचों अंगुलियों से स्पर्श करते हुए भावना करें कि गायत्री के इस प्रतीक के माध्यम से सदा सदविचार ही यहाँ स्थापित रहेंगे । निम्न मंत्र का उच्चारण करें ।


ऊँ चिदरुपिणि महामाये, दिव्यतेजः समन्विते ।

तिष्ठ देवि शिखामध्ये, तेजोवृद्घि कुरुष्व मे ।।



द. प्रणायाम – श्वास को धीमी गति से बाहर से गहरी खींचकर रोकना व बाहर निकालना प्राणायाम के कृत्य में आता है । श्वांस खींचने के साथ भावना करें कि प्राणशक्ति की श्रेष्ठता श्वांस के द्घारा अंदर खींची जा रही है, छोड़ते समय यह भावना करें कि हमारे दुर्गुण, दुष्प्रवृत्तियाँ, बुरे विचार प्रश्वांस के साथ बाहर निकल रहे है । प्राणायाम, मंत्र के उच्चारण के बाद किया जाये ।


ऊँ भूः ऊँ भुवः ऊँ स्वः ऊँ महः ऊँ जनः ऊँ तपः ऊँ सत्यम् । ऊँ भूर्भवः स्वः त्तसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् । ऊँ आपोज्योतीरसोडमृतं, ब्रहम भूर्भऊवः स्वः ऊँ ।


य. न्यास – इसका प्रयोजन है – शरीर के सभी महत्तवपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके । बाँयें हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की पाँचों अंगुलियों को उसमें भिगोकर बताए गये स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें ।


ऊँ वाड.मे आस्येडस्तु । (मुख को)

ऊँ नसोर्मेप्राणोडस्तु । (नासिका के दोनो छिद्रों को)

ऊँ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु । (दोनों नेत्रों को)

ऊँ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु । (दोनों कानों को)

ऊँ बाहृोर्मे बलमस्तु । (दोनों भुजाओं को)

ऊँ ऊर्वोर्मे ओजोडस्तु । (दोनों जंघाओं को)

ऊँ अरिष्टानि मेड़्रानि, तनूस्तन्वा में सह सन्तु (समस्त शरीर को)


आत्मशोधन की ब्रहम संध्या के उपरोक्त पाँचों कृत्यों का भाव यह है कि साधक में पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्घि होतथा मलिनाता-अवांछनीयता की निवृत्ति हो । पवित्र प्रखर व्यक्ति ही भगतवान के दरबार में प्रवेश के अधिकारी होते है ।

2. देवपूजन – क. – गायत्री उपासना का आधार केन्द्र महाप्रज्ञा-ऋतंभरा गायत्री है । उनका प्रतीक चित्र सुसज्जित पूजा की वेदी पर स्थापित कर उनका निम्न मंत्र के माध्यम से आवाहन करें । भावना करें कि साधक की भावना के अनुरुप माँ गायत्री की शक्ति वहाँ अवतरित हो, स्थापिर हो रही है ।

ऊँ आयातु वरदे देवि । त्र्यक्षरे ब्रहमवादिनि ।

गायत्रिच्छन्दसां मातः, ब्रहृयोने नमोडस्तु ते ।। 3 ।।

श्री गायत्र्यै नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।

ततो नमस्कारं करोमि ।


ख. गुरु परमात्मा की दिव्य चेतना का अंश है, जो साधक का मार्गदर्शन करता है । सदगुरु के रुप में पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीया माताजी का अभिनन्दन करते हुए उपासना की सफलता हेतु प्रार्थना के साथ गुरु आवाहन् निम्न मंत्रोच्चर के साथ करें ।


ऊँ गुरुब्रर्हमा गुरुविष्णुः, गुरुरेव महेश्वरः ।

गुरुरेव परब्रहृ, तस्मै श्री गुरवे नमः ।। 1 ।।

अखन्डमणडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम् ।

तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः ।। 2 ।।

मातृवत् लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका ।

नमोडस्तु गुरु सत्तायै, श्रद्घा-प्रज्ञायुता च या ।। 3 ।।

ऊँ श्री गुपवे नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि,

धयायामि ।


ग. माँ गायत्री व गुरुसत्ता के आवाहन व नमन के पश्चात् देवपूजन में घनिष्ठता स्थापना हेतु पंचोपचार पूजन किया जाता है । इन्हें विधिवत् संपन्न करें । जल, अक्षत, पुष्प, धूप-दीप तथा नैवेघ प्रतीक के रुप में आराध्य के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है । एक-एक करके छोटी तश्तरी में इन पांचों को समर्पित करते चलें । जल का अर्थ है – नम्रता, सहृदयता । अंक्षत का अर्थ है – समयदान, अंशदान । पुष्प का अर्थ है – प्रसन्नता, आंतरिक उल्लास । धूप-दीप का अर्थ है – सुगंध व प्रकाश का वितरण, पुण्य परमार्थ तथा नैवेघ का अर्थ है – स्वभाव व व्यवहार में मधुरता, शालीनता का समावेश ।


ये पांचों उपचार व्यक्तित्व को सत्प्रवृत्तियों से संपन्न करने के लिये किये जाते है । कर्मकांड के पीछे भावना महत्वपूर्ण है ।


3. जप – गायत्री मंत्र का जप न्यूनतम तीन माला अर्थात् घड़ी से प्रायः पन्द्रह मिनट नियमित रुप से किया जाये, अधिक बन पड़े तो अधिक उत्तम । होंठ हिलते रहे, किंतु आवाज इतनी मंद हो कि पास बैठे व्यक्ति भी सुन न सकें । जप प्रकि्या कषाय-कल्मषों-कसंस्कारों को धोने के लिये की जाती है ।


ऊँ भूर्भवः स्वः त्तसवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।


इस प्रकार मंत्र का उच्चारण करते हुए भावना की जाए कि हम निरंतर पवित्र हो रहे है । दुर्वुद्घि की जगह सदबुद्घि की स्थापना हो रही है ।

4. ध्यान - जप तो अंग अवयव करते है, मन को ध्यान में नियोजित करना होता है । साकार ध्यान में गायत्री माता के आँचल की छाया में बैठने तथा उनका दुलार भरा प्यार अनवरत रुप से प्राप्त होने की भावना की जाती है । निराकार ध्यान में गायत्री के देवता सविता की प्रभातकालीन स्वर्णिम किरणों के शरीर पर बरसने व शरीर में श्रद्घा-प्रज्ञा निष्ठा रुपी अनुदान उतरने की मान्यता परपक्व की जाती है । जप और ध्यान के समन्वय से ही चित्त एकाग्र होता है और आत्मसत्ता पर उस कृत्य का महत्वपूर्ण प्रभाव भी पड़ता है ।


5. सूर्याध्र्यदान – जप समाप्ति कके पश्चात् पूजा वेदी पर रखे छोटे कलश का जल सूर्य की दिशा में अर्घ्य रुप में निम्न मंत्र के उच्चारण के साथ चढ़ाया जाता है ।


ऊँ सूर्यदेव । सहस्त्रांशो, तेजोराशे जगत्पते ।

अनुकम्पय मां भक्तया, गृहाणार्घ्य दिवाकर ।।

ऊँ सूर्याय नमः, आदित्याय नमः, भास्कराय नमः ।।


भावना यह करें कि जल आत्मसत्ता का प्रतीक है एवं सूर्य विराट ब्रहृ का तथा हमारी सत्ता-संपदा समष्टि के लिये समर्पित विर्सजित हो रही है ।


नमस्कार एवं विसर्जन – इतना सब करने के बाद पूजा स्थल पर विदाई के लिये करबद्घ नतमस्तक हो नमस्कार किया जाए व सब वस्तुओं को समेटकर यथास्थान रख लिया जाये । जप के लिये माला तुलसी या चंदन की ही लेनी चाहिये । सूर्योदय के दो घंटे पूर्व से सूर्यास्त के एक घंटे बाद तक कभी भी गायत्री उपासना की जा सकती है । मौन मानसिक जप चौबीस घंटे कभी किया जा सकता है । माला जपते समय तर्जनी उंगली का उपयोग न करें तथा सुमेरु का उल्लंघन न करें ।

|| ॐ श्री गयत्रैय नमः ||

गायत्री स्तवन

मूल संस्कृत में

ऊँ यन्मंडलं दीप्तिकरं विशालम्, रत्नप्रभं तीव्रमनादिरुपम् ।

दारिद्रय – दुःखक्षय कारणं च, पुनातु मां तत्सवितुवर्रेण्यम् ।। 1 ।।

यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।

तं देवदेवं प्रणमामि भर्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 2 ।।

यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्य पूज्यं त्रिगुणात्मरुपम् ।

समस्त तेजोमय दिव्यरुपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 3 ।।

यन्मण्डलं गूढमति प्रबोधं, धर्मस्य वृद्घिं कुरुते जनानाम् ।

यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 4 ।।

यन्मण्डलं व्याधि विनाशदक्षम्, यद्घग् यजुः सासमु सम्प्रगीतम् ।

प्रकाशितं येन च भूर्भुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 5 ।।

यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्घसंघाः ।

यघोगिनो योगजुषां च संघाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 6 ।।

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह मर्त्यलोके ।

यत्काल कालादिमनादिरुपम, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 7 ।।

यन्मण्डलं विष्णुचतुर्मुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।

यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 8 ।।

यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्घं, उत्पत्ति रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।

यस्मिन्जगत् संहरतेडखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 9 ।।

यन्मण्जलं सर्वगतस्य विष्णोंः, आत्मा परंधाम विशुद्घतत्वम् ।

सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 10 ।।

यन्मण्डलं ब्रहृविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण सिद्घसंघाः ।

यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 11 ।।

यन्मण्डलं वेद विदोपगीतं, यघोगिनां योग पथानुगम्यम् ।

तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम् ।। 12 ।।

अनुवाद हिन्दी में

शुभ ज्योति के पुंज, अनादि अनुपम, ब्रहमाण्ड व्यापी आलोक कर्ता ।


दारिद्रय दुःख भय से मुक्त कर दो पावन बना दो हे देव सविता ।। 1 ।।

ऋषि देवताओं से नित्य पूजित, हे भर्ग भव बन्धन मुक्ति कर्ता ।।

स्वीकार करलो वंदन हमारा, पावन बना दो हे देव सविता ।। 2 ।।

हे ज्ञान के घन त्रैलोक्य पूजित, पावन गुणों के विस्तार कर्ता ।

समस्त प्रतिभा के आदि कारण, पावन बना दो हे देव सविता ।। 3 ।।

हे गूढ़ अंतःकरण में विराजित, तुम दोष-पापादि संहार कर्ता ।

शुभ धर्म का बोध हमको करा दो, पावन बना दो हे देव सविता ।। 4 ।।

हे व्याधि नाशक हे पुष्टि दाता, ऋग्, साम, यजु वेद संचार कर्ता ।

हे भूर्भुवः स्वः में स्व प्रकाशित, पावन बना दो हे देव सविता ।। 5 ।।

सब वेद विद, चारण, सिद्घ योगी, जिसके सदा से है गान कर्ता ।

हे सिद्घ संतों के लक्ष्य शाश्वत, पावन बना दो हे देव सविता ।। 6 ।।

हे विश्व मानव से आदि पूजित, नश्वर जगत् मेंशुभ ज्योति कर्ता ।

हे काल के काल-अनादि ईश्वर, पावन बना दो हे देव सविता ।। 7 ।।

हे विष्णु, ब्रहादि द्घारा प्रचारित, हे भक् पालक, हे पाप हर्ता ।

हे काल-कल्पादि के आदि स्वामी, पावन बना दो हे देव सविता ।। 8 ।।

हे विश्व मंडल के आदि कारण, उत्पत्ति-पालन-संहार कर्ता ।

होता तुम्ही में लय यह जगत् सब, पावन बना दो हे देव सविता ।। 9 ।।

हे सर्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता, विशुद्घ आत्मा कल्याण कर्ता ।

शुभ योग पथ पर हम को चलाओ, पावन बना दो हे देव सविता ।। 10 ।।

हे ब्रहृनिष्ठों से आदि पूजित, वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्ता ।

सदभावना हम सब में जगा दो, पावन बना दो हे देव सविता ।। 11 ।।

हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक, सदज्ञान के आदि संचार कर्ता ।

प्राणिपात स्वीकार लो हम सभी का, पावन बना दो हे देव सविता ।। 12 ।।

|| ॐ गयत्रैय नमः : ||

गुरु की पूजा

|| गुरु की पूजा ||

मित्रों जिसका गुरु नही होता है वह निगुरा होता है। अतः कोई भी पूजा शुरू करने से पहले गुरु का आवाहन जरुरी है। शास्त्रों में लिखा है " गुरु ही ब्रह्म है गुरु ही विष्णु है और गुरु ही शिव है। आओ गुरु जी की वंदना करें ।

एक तुम्हीं आधार सदगुरु, एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।

जब तक मिलो न तुम जीवन में । शांति कहां मिल सकती मन में ।।

खोज फिरा संसार सदगुरु । एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।।

कैसा भी हो तैरन हारा । मिले न जब तक शरण सहारा ।।

हो न सका उस पार सदगुरु । एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।।

हे प्रभु तुमहिं विविध रुपों में । हमें बचाते भव कूपों से ।।

ऐसे परम उदार सदगुरु । एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।।

हम आए है द्घार तुम्हारे । अब उद्घार करो दुःखहारे ।।

सुन लो दास पुकार सदगुरु । एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।।

छा जाता जग में अंधियारा । तब पाने प्रकाश की धारा ।।

आते तेरे द्घार सदगुरु । एक तुम्हीं आधार सदगुरु ।।



गायत्री चालीसा और आरती

श्री गायत्री चालीसा

ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड।
शांति क्रान्ति जागृति प्रगति रचना शक्ति अखण्ड॥
जगत जननि मंगल करनि गायत्री सुखधाम।
प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम॥
भूर्भुव: स्व:ॐ युत जननी। गायत्री नित कलिमल दहनी॥
अक्षर चौबिस परम पुनीता। इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥
शाश्वत सतोगुणी सतरूपा। सत्य सनातन सुधा अनूपा॥
हंसारूढ श्वेताम्बर धारी। स्वर्णकांति शुचि गगन बिहारी॥
पुस्तक पुष्प कमंडलु माला। शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥
ध्यान धरत पुलकित हिय होई। सुख उपजत, दु:ख दुरमति खोई॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया। निराकार की अद्भुत माया॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई। तरै सकल संकट सों सोई॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥
तुम्हरी महिमा पार न पावें। जो शारद शत मुख गुण गावें॥
चार वेद की मातु पुनीता। तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥
महामन्त्र जितने जग माहीं। कोऊ गायत्री सम नाहीं॥
सुमिरत हिय मैं ज्ञान प्रकासै। आलस पाप अविद्या नासै॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी। कालरात्रि वरदा कल्याणी॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते। तुम सौं पावें सुरता तेते॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी। जै जै जै त्रिपदा भय हारी॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। तुम सम अधिक न जग में आना॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेषा॥
जानत तुमहिं, तुमहिं ह्वै जाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई। माता तुम सब ठौर समाई॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। सब गतिमान तुम्हारे प्रेरे॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक पोषक नाशक त्राता॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी। तुम सन तरे पातकी भारी॥
जापर कृपा तुम्हारी होई। तापर कृपा करें सब कोई॥
मन्द बुद्धि ते बुधि बल पावें। रोगी रोग रहित ह्वै जावें॥
दारिद मिटे कटै सब पीरा। नाशै दु:ख हरे भव भीरा॥
गृह कलेश चित चिन्ता भारी। नासै गायत्री भय हारी॥
सन्तति हीन सुसन्तति पावें। सुख सम्पत्ति युत मोद मनावें॥
भूत पिशाच सबै भय खावें। यम के दूत निकट नहिं आवें॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई। अछत सुहाग सदा सुखदाई॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी। विधवा रहे सत्य व्रत धारी॥
जयति जयति जगदम्ब भवानी। तुम सम और दयालु न दानी॥
जो सद्गुरु सों दीक्षा पावें। सो साधन को सफल बनावें॥
सुमिरन करें सुरुचि बडभागी। लहैं मनोरथ गृही विरागी॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। सब समर्थ गायत्री माता॥
ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, जोगी। आरत, अर्थी, चिंतित, भोगी॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें। सो सो मन वांछित फल पावें॥
बल, बुद्धि, विद्या, शील स्वभाऊ। धन वैभव यश तेज उछाऊ॥
सकल बढें उपजे सुख नाना। जो यह पाठ करे धरि ध्याना॥
यह चालीसा भक्तियुत पाठ करे जो कोई।
तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।

आरती श्री गायत्री जी की

जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक क‌र्त्री॥ जयति ..
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री।
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥ जयति ..
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥ जयति ..
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥ जयति ..
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥ जयति ..
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥ जयति ..
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥ जयति ..
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥ जयति ..
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥ जयति ..
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥

माँ गायत्री सब पर कृपा करें।


गायत्री स्तोत्र

सुकल्याणीं वाणीं सुरमुनिवरैः पूजितपदाम
शिवाम आद्यां वंद्याम त्रिभुवन मयीं वेदजननीं
परां शक्तिं स्रष्टुं विविध विध रूपां गुण मयीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

विशुद्धां सत्त्वस्थाम अखिल दुरवस्थादिहरणीम्
निराकारां सारां सुविमल तपो मुर्तिं अतुलां
जगत् ज्येष्ठां श्रेष्ठां सुर असुर पूज्यां श्रुतिनुतां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

तपो निष्ठां अभिष्टां स्वजनमन संताप शमनीम
दयामूर्तिं स्फूर्तिं यतितति प्रसादैक सुलभां
वरेण्यां पुण्यां तां निखिल भवबन्धाप हरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

सदा आराध्यां साध्यां सुमति मति विस्तारकरणीं
विशोकां आलोकां ह्रदयगत मोहान्धहरणीं
परां दिव्यां भव्यां अगम भव सिन्ध्वेक तरणीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

अजां द्वैतां त्रेतां विविध गुणरूपां सुविमलां
तमो हन्त्रीं तन्त्रीं श्रुति मधुरनादां रसमयीं
महामान्यां धन्यां सततकरूणाशील विभवां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

जगत् धात्रीं पात्रीं सकल भव संहारकरणीं
सुवीरां धीरां तां सुविमलतपो राशि सरणीं
अनैकां ऐकां वै त्रयजगत् अधिष्ठान् पदवीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

प्रबुद्धां बुद्धां तां स्वजनयति जाड्यापहरणीं
हिरण्यां गुण्यां तां सुकविजन गीतां सुनिपुणीं
सुविद्यां निरवद्याममल गुणगाथां भगवतीं
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम

अनन्तां शान्तां यां भजति वुध वृन्दः श्रुतिमयीम
सुगेयां ध्येयां यां स्मरति ह्रदि नित्यं सुरपतिः
सदा भक्त्या शक्त्या प्रणतमतिभिः प्रितिवशगां
भजे अम्बां गायत्रीं परम सुभगा नंदजननीम
शुद्ध चितः पठेद्यस्तु गायत्र्या अष्टकं शुभम्
अहो भाग्यो भवेल्लोके तस्मिन् माता प्रसीदति


|| ॐ श्री गयत्रैय नमः ||

गायत्री तपोभूमि : मथुरा

यह संस्थान मथुरा-वृन्दावन मार्ग महर्षि दुर्वासा की तपःस्थली पर स्थापित किया गया है । इसे परम पूज्य गुरुदेव की चौबीस महापुरश चरणों की पूर्णाहुति पर की गयी स्थापना माना जा सकता है, जिसे विनिर्मित ही गायत्री परिवार रूपी संगठन के विस्तार के लिए किया गया था । इसकी स्थापना से पूर्व चौबीस सौ तीर्थों के जल व रज संगृहीत करके यहाँ उनका पूजन किया गया, एक छोटी किन्तु भव्य यज्ञशाला में अखण्ड अग्नि स्थापित की गयी तथा गायत्री महाशक्ति का मन्दिर विनिमत किया गया । समय-समय पर विभन्न प्रकार के वैदिक एवं पौराणिक यज्ञ इस स्थान पर संपन्न किए गये । समय-समय पर साधना एवं प्रशिक्षण सत्रों द्वारा धर्मत्रंत से लोकशिक्षण के अभियान को यहीं से गति दी गई ।

परम पूज्य गुरुदेव की जन-जन से मिलने, साधनाओं द्वारा मार्गदर्शन देने की कर्मभूमि गायत्री तपोभूमि रही है । यहाँ पर १०८ कुण्डी महायज्ञ (१९५३) में पहली बार पूज्यवर ने साधकों को मंत्र दीक्षा दी । व्यक्तिगत मार्गदर्शन द्वारा श्रेष्ठ नर रतनों का चयन कर गायत्री परिवार को विनिमत करने के कार्य का शुभारंभ यहीं से हुआ । सन ६०-६१ के हिमालय प्रवास से लौटकर पूज्य आचार्य श्री ने युग निर्माण विद्यालय के एक स्वावलम्बन प्रधान शिक्षा देने वाले तंत्र को आरंभ किया जो एवं अभी भी सफलता पूर्वक चल रहा है ।

परम पूज्य गुरुदेव की १९७१ की विदाई के बाद यहाँ कार्य-विस्तार के अनुरूप निर्माण हो गया है और कण-कण में उनकी प्राण चेतना का दर्शन किया जा सकता है । विराट प्रज्ञानगर, युग निर्माण विद्यालय, साहित्य की छपाई हेतु बड़ी-बड़ी आफसेट मशीनें तथा युग निर्माण साहित्य जो पूज्यवर ने जीवन भर लिखा, उसका वितरण-विस्तार तंत्र यहाँ पर देखा जा सकता है ।

गायत्री तीर्थ : शान्ति कुञ्ज ( हरिद्वार )

शान्ति कुञ्ज (हरिद्वार ) : गयात्री तीर्थ स्थान


हरिद्वार के सप्त सरोवर क्षेत्र में ऋषिकेश रोड पर स्टेशन से ६ कि.मी. दूर महर्षि विश्वामित्र की तपःस्थली पर युगऋषि परम पूज्य आचार्य पं.श्रीराम शर्मा एवं वंदनीया भगवती देवी शर्मा की प्रचण्ड तप-साधना से अनुप्राणित विशाल, दर्शनीय, जीवंत तीर्थ ।

स्थापनाएँ-युगतीर्थ में दिव्य प्राण ऊर्जा का प्रचण्ड प्रवाह बनाए रखने के लिये स्थापित है ।
1. हजारों करोड़ गायत्री मंत्र जप से अनुप्राणित 'अण्खण्ड दीप' ।
2. हजारों नैष्ठिक साधकों द्वारा नित्य आहुतियों से पुष्ट 'अखण्ड अग्नि' ।
3. युगशक्ति गायत्री का प्राणवान मंदिर, दिव्य जीवन विद्या के मूर्धन्य 'सप्त ऋषि,' तीर्थ चेतना के श्रोत 'प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा' के प्रतीक ।
4. आध्यात्मिक ऊर्जा के सनातन केन्द्र देवात्मा हिमालय का भव्य मंदिर, मनुष्य में देवत्व जगाने वाले सभी धर्म-सम्प्रदाय के पवित्र प्रतीक चिह्न, जड़ीबूटियों की दुर्लभ वाटिका और गायत्री परिवार की स्थापना से लेकर अब तक की गतिविधियों पर आधारित प्रदर्शनी आदि ।

प्रवृत्तियाँ - युगतीर्थ, आध्यात्मिक सैनीटोरियम कहे जाने वाले इस आश्रम में व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण की अनेक प्रभावशाली गतिविधियाँ नियमित रूप से चलती रहती हैं । जैसे-जीवन जीने की कला के नौ दिवसीय सत्र (प्रतिमाह तीन)
लोकसेवियों के युग शिल्पी सत्र (प्रतिमास १ से २९ तारीख तक) । ग्राम्य विकास प्रशिक्षण, कुटीर उद्योग प्रशिक्षण, नैतिक शिक्षा हेतु शिक्षण-प्रशिक्षण, ग्राम स्वास्थ्य सेवियों के विशेष सत्र, विविध प्रशासनिक अधिकारियों के लिये व्यक्तित्व परिष्कार सत्र आदि ।

सभी प्रशिक्षण निःशुल्क हैं । देश-विदेश में स्थापित हजारों गायत्री शक्तिपीठों, प्रज्ञापीठों का मार्गदर्शन केन्द्र पत्राचार कक्ष साधकों, लोकसेवियों के लिये प्रेरणा-परामर्श की व्यवस्था है । सैकड़ों उच्च शिक्षित सेवाभावी स्वयं सेवक मात्र निर्वाह राशि लेकर सारी गतिविधियों को संचालित करते हैं ।

कलियुग में गयात्री मंत्र बहुत ही प्रभाव शाली है।
कृपया शान्ति कुञ्ज साहित्य का अध्यन जरुर करें

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गायंत्री मंत्र

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुवरेण्यम्
भर्गो
देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्

( यजुर्वेद - ३६।३)

हिन्दी में अनुवाद
उस प्राण स्वरुप, दुःख नाशक, सुख स्वरुप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक , देव स्वरुप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें | वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें |

Gayatri Mantra
Aum Bhoor Bhuwah Swaha,
Tat Savitur Varenyam,
Bhargo Devasaya Dheemahi,
Dhiyo Yo Naha Prachodayat
(Yajur veda - 36.3)

Meaning - May Almighty illuminate our intellect and inspire us towards the righteous path....