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गुलज़ार की शायरी


गुलज़ार साहब कहते हैं.....

आप के बाद 
हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही 
गुज़ारी है.....

दिन कुछ 
ऐसे गुज़ारता है कोई
जैसे एहसान 
उतारता है कोई....

आइना देख कर 
तसल्ली हुई
हम को इस घर में 
जानता है कोई.....

तुम्हारी ख़ुश्क सी आँखें 
भली नहीं लगतीं
वो सारी चीज़ें 
जो तुम को रुलाएँ, 
भेजी हैं......

हाथ छूटें भी तो 
रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से 
लम्हे नहीं तोड़ा करते....

ज़मीं सा दूसरा 
कोई सख़ी कहाँ होगा
ज़रा सा बीज उठा ले तो 
पेड़ देती है.....

खुली किताब के 
सफ़्हे उलटते रहते हैं
हवा चले न चले 
दिन पलटते रहते है....

शाम से आँख में 
नमी सी है
आज फिर 
आप की कमी सी है....

वो 
उम्र कम कर रहा था मेरी
मैं 
साल अपने बढ़ा रहा था....

कल का हर वाक़िआ 
तुम्हारा था
आज की दास्ताँ 
हमारी है.....

काई सी जम गई है 
आँखों पर
सारा मंज़र 
हरा सा रहता है....

उठाए फिरते थे 
एहसान जिस्म का जाँ पर
चले जहाँ से तो 
ये पैरहन उतार चले...

सहर न आई 
कई बार नींद से जागे
थी रात रात की ये 
ज़िंदगी गुज़ार चले....

कोई न कोई रहबर 
रस्ता काट गया
जब भी अपनी राह 
चलने की कोशिश की...

कितनी लम्बी 
ख़ामोशी से गुज़रा हूँ
उन से कितना 
कुछ कहने की कोशिश की...

कोई अटका हुआ है 
पल शायद
वक़्त में पड़ गया है 
बल शायद...