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कहानी : उपहार











लघु कथा - उपहार

मां-बेटे बड़े प्यार और तल्लीनता से खाना खा रहे थे. अचानक रामू ने खाते-खाते चुप्पी तोड़ी, “माँ, आज तूने इतनी देर क्यों कर दी...”

हीरा बाई निवाला चबाते हुए बोली, “अरे, परसों दिवाली है ना.. मालकिन साफ-सफाई में लगी हुई थी. मैं भी उनका हाथ बटाने लगी. हमें उनकी मिठाई का डिब्बा और बख्शिश का भार भी तो उतारना होता है. इसीलिए देर हो गयी.”

“माँ, ये बड़े लोग अमीर होकर भी गरीबों को उपहार में मिठाई का डिब्बा ही क्योँं पकड़ा देते हैं; मैने देखा था उन लोगों के घर तो बड़े बड़े डिब्बे और काजू बादाम ना जाने क्या क्या आते हैं"

हीरा बाई हंसकर बोली, “बेटा जिसकी नीयत और भावना जैसी होगी वैसा ही तौ देगा, वैसे भी एक दिन काजू बादाम नहीं खायेंगे तौ कुछ नही होगा"

बेटे की बात हीरा बाई के मन को छू गई और गंभीरता से मुस्कुराकर बोली, “बेटा, उपहार और लक्ष्मी झोपड़पट्टी में नहीं, कोठियों में जाती है.”

“ऐसा क्यों माँ....?”
“क्योंकि वह गरीब के झोपड़ में नहीं, अमीर की मजबूत कोठियों में रहना पसंद करती है.”

बेटे की अबोध आंखों ने मां के चेहरे के पर उभरे बेबसी के भावों को भांप लिया. वह आगे बिना कोई सवाल किये नजरें झुकाकर चुपचाप खाने लगा.

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