लघु कहानियाँ  ( साभार : गायत्री परिवार - हरिद्वार )
किसी  अरब व्यापारी                     को पता चला की                     इथोपिया के लोगों के पास चाँदी बहुत अधिक है | उसे वहाँ जाकर                     व्यापार करने की सूझी और एक दिन सैकड़ों ऊँट प्याज लादकर वह                     इथोपिया के लिए चल भी पड़ा |
इथोपियावासियों ने पहले कभी प्याज नहीं खाया था | प्याज खाकर वे                     बहुत प्रसन्न हुए | उन्होंने सब प्याज खरीद लिया और उसके बराबर                     सोना, चांदी तोल दिया | व्यापारी बहुत प्रसन्न हुआ | धनवान बनकर                     देश लौटा |
एक दूसरे व्यापारी को इसका पता चला तो उसने भी इथोपिया जाने की                     ठानी | उसने प्याज से अच्छी वस्तु लहसुन लादी और इथोपिया जा                     पहुँचा | वहाँ के लोगों ने लहसुन चखा तो प्रसन्नता से नाच उठे |                     सारा लहसुन उन्होंने ले लिया, पर बदले में दें क्या , यह प्रश्न                     उठा | उन्होंने देखा सोना, चांदी तो बहुत है, पर सोने से भी                     अच्छी वस्तु उनके पास प्याज है, इसलिए प्याज से दूसरे व्यापारी                     की बोरियां भर दीं |
व्यापारी खीझ उठा, पर बेचारा करता क्या, चुपचाप प्याज लेकर घर                         लौटा | बेचारा व्यापारी समझ नहीं पा रहा था की अमूल्यता की कसौटी                     क्या है ? उसे लगा की यह सब अपने-अपने मन की मान्यता और                     प्रसन्नता के खेल हैं | सत्य तो कुछ और ही है,  जिसे मनुष्य नहीं                     समझ पा रहा |
एक किसान, जो महात्मा गाँधी से बड़ा प्रभावित                     था, उन्हें देखने के लिए रेल से पास के नगर में जा रहा था |                     सोचता जा रहा था वह, गाँधी जी के बारे में | उसकी कल्पना थी की                     गाँधी जी बड़ी शानोशौकत वाले व्यक्ति होंगे |
रेलगाड़ी में सवार हुआ तो डिब्बे में भी भारी भीड़ थी | एक सीट                     पर कोई सज्जन लेते थे- काफ़ी थके जान पड़ते थे | किसान ने उनके                     पास जाकर हाथ पकड़ा और उठाते हुए बोला उठकर बैठो | ऐसे लेटे हो                     जैसे तुम्हारी अपनी गाड़ी हो |
वह महाशय उठाकर बैठ गए | इस तरह उठाए जाने पर भी वे न तो खिन्न                     हुए थे और न ही उदास | बड़े मजे से खाली हुई जगह में बैठकर                     किसान गुनगुनाने लगा - " धन-धन गांधी महाराज, दुखियों को दुःख                     मिटाने वाले |" उधर डिब्बे के सब लोग मुस्कराते रहे |
गंतव्य स्थान पर पहुंचकर रेलगाडी रुकी तो लोग गाँधी जी को उतारने                     दौड़ पड़े | किसान को बड़ा आश्चर्य हुआ और  क्षोभ भी, जब उसे यह पता                     चला की जिस व्यक्ति को उसने हाथ पकड़कर बैठा दिया था, वह गाँधी                     जी ही थे |
सादगी और सज्जनता महानता के महत्वपूर्ण अंग हैं |
शहर में एक युवक रहता था, वह बड़ा                         परिश्रमी था |                         दिन भर काम करता और शाम को जो मिलता खा-पीकर                         चैन की नींद लेता था |
एक दिन एक धनी व्यक्ति को देखकर उसकी ईर्ष्या जाग पड़ी |                         ईर्ष्या की जलन में युवक को रात में अच्छी तरह नींद नहीं आती                         |
संयोग से एक दिन उसे बहुत- सा धन जमीन में गड़ा मिल गया | अब                         तो उसकी सारी चिंता दूर हो गई | दूसरे दिन से ही उसका समय                         भोग और वासना की तृप्ति में बीतने लगा, कुछ ही दिनों में                         उसका सारा शरीर कमजोर पड़ गया | मित्र लोग ईर्ष्या करने लगे,                         सब पैसे से प्रेम करने वाले मिलते, उसे किसी पर विश्वास न                         रहा | फलस्वरूप उसकी चिता पहले से दोगुनी हो गई | उसने सोचा                         इससे तो पहले ही अच्छे थे, सुख और संतोष की नींद तो लेते थे                         |
एक दिन एक महात्मा उधर से निकले, युवक ने उनसे सुखी होने का                         उपाय पूछा | महात्मा ने कहा - 'संतोष !' और इतना कहकर आगे                         बढ़ गए | युवक ने बात समझी, अपनी मुफ्त की सम्पति एक                         विद्यालय को दान कर दी और फिर से वही परिश्रमशील जीवन जीने                         में लग गया |
एक बार एक व्यक्ति ने अपना सर्वस्व                         परोपकार में लगाकर संन्यास ग्रहण किया | वह सभी प्रकार से                         ईश्वर में शरणागत हो गया | इसके कारण उसके योगक्षेम का भार                         स्वयं उठाने के लिए भगवान् को सहर्ष बाध्य होना पड़ा | उसके                         लिए देवदूत एक थाली में बड़े सुस्वादु भोजन लाता था और उसे                         कराकर लौट जाता था | यह देखकर एक अन्य व्यक्ति भी अपना सब                         कारोबार लड़कों को सौंपकर, गेरुआ वस्त्र पहनकर उसी के निकट                         तप करने लगा |
अब देवदूत दो थाली लाने लगा, एक में सूखी रोटी तथा दूसरी                         में वही सुस्वादु भोजन | दूसरे व्यक्ति ने लगातार सूखी रोटी                         आते देखकर रहा- "मुझे ही क्यों यह सूखी रोटी मिल रही है |"
देवदूत ने उत्तर दिया- " भगवन ! यह फल तो संचित पुण्य के                         अनुसार मिल रहा है | उसने पुण्य में सर्वस्य लगा दिया और                         आपने जीवन भर में केवल एक बार बड़े अंहकार से एक व्यक्ति को                         रोटी दी थी, उसी के ब्याज स्वरूप यह रोटियाँ मिल रहीं हैं |                         अब आपकी सूखी रोटी रोटी भी समाप्त होने को है, फिर कुछ न                         मिलेगा |"
अब इस व्यक्ति को चेतना हुई और उसने अपनी बाकी बची रोटी                         देवदूत से मँगाकर दान कर दी और आप भूखा रहा | दूसरे दिन जब                         देवदूत भोजन लेकर आया तो दोनों थाली सुस्वादु पकवानों से भरी                         थीं |
तुर्की                                                 में जकीर नाम के एक फकीर हुए हैं |                         वह आईन नदी के किनारे कुटी बनाकर रहते थे | एक दिन नदी में                         एक सेब बहता आ रहा था | जकीर ने उसे पकड़ लिया |
अभी उसे खाने की तैयारी कर ही रहे थे की अंतःकरण से आवाज़                         आई-"फकीर ! क्या यह तेरी संपति है, क्या तूने इसे परिश्रम                         से पैदा किया है ? यदि नहीं तो इसे खाने का तुझे क्या                         अधिकार ?"
सेब झोले में डालकर अब फकीर उसके स्वामी की खोज में नदी के                         चढाव की ओर चल पड़े | थोडी दूर पर एक सेब का बाग़ मिला | कुछ                         सेब के वृक्षों की डालें पानी को छू रही थीं, फकीर ने                         विश्वास किया सेब यहीं से टूटा हुआ होगा |
उन्होंने बाग़ के स्वामी से कहा- " यह लीजिये आपका सेब नदी                         में बहता जा रहा था |" उसने कहा "भाई मैं तो बाग़ का रखवाला                         मात्र हूँ, इसकी स्वामिनी तो बुखारा की राजकुमारी है |"
फकीर वहाँ से बुखारा के लिए रवाना हुआ | कई दिन की पैदल                         यात्रा के बाद वहाँ पहुँचा और सेब लेकर राजकुमारी के पास                         उपस्थित हुआ |
फकीर को एक सेब लेकर इस तरह आने का हाल सुनकर राजकुमारी                         हँसकर बोली - "अरे बाबा! इसको वहीं खा लेते , एक सेब यहाँ                         लाने की क्या आवश्यकता थी?"
फकीर ने कहा-" राजकुमारी जी ! आपकी दृष्टि में एक सेब का                         कुछ भी मूल्य नहीं, पर इस सेब ने तो मेरा सारा धर्म, संयम                         और सारे जीवन की साधना नष्ट कर दी होती?"
दक्षिण भारत में एक छोटा-सा राज्य बल्लारी                         नाम का था | एक बार महाराज शिवाजी की सेना ने उस पर आक्रमण                         किया | बल्लारी के सैनिक जी-जान से लड़े, पर अल्प संख्या में                         होने के कारण उनकी पराजय हुई | शेष सैनिक बंदी कर लिए गए                         उनमें वहाँ की शासिका रानी मलबाई भी थी | शिवाजी ने उसको                         सम्मानपूर्वक लाने की आज्ञा दी, पर मलबाई को बंदिनी दशा में                         यह सम्मान बुरा लगा और उसने शिवाजी से कहा- "मैं तो इस                         सम्मान के व्यवहार को अपमान की तरह समझती हूँ | आप मुझे एक                         हारे हुए शत्रु के नाते मृत्युदंड दें |"
शिवाजी महाराज ने सिंहासन से उतरकर स्वयं उसका अभिवादन किया                         और कहा - " आप जैसी वीर रमणियों का मैं अपमान नहीं कर सकता                         | मेरी माता जीजाबाई का हाल में ही देहावसान हो गया है |                         मैं उन्हीं की वीर प्रकृति का दर्शन आपमें कर रहा हूँ और अब                         से मैं सदैव आपको माता के समान ही मानूँगा |" मलबाई के                         नेत्र स्नेहवश भर आए, उसने कहा - "तुम वास्तव में क्षत्रपति                         हो, तुमसे अवश्य ही धर्म और देश की रक्षा होगी |"
बहुत                         दिन हुए, एक व्यापारी गुजरात में जाकर                         व्यापार करने लगा | उसने अपने पुत्र अशोक को नालंदा                         विश्वविद्यालय में पढने भेजा | कुछ दिनों में व्यापारी की                         पत्नी की मृत्यु हो गई | उसके दुःख में उसने भी प्राण त्याग                         दिए | मरने से पूर्व उसने अपनी सारी संपति अपने पुत्र अशोक                         के नाम कर दी और उसके पास समाचार भेज दिया तथा तब तक                         व्यवस्था एक न्यायधीश को सौंप दी |
समाचार प्राप्त होते ही अशोक व्याकुल होकर घर की ओर चला |                         मार्ग में उसे एक अन्य बालक मिला तथा सहानभूति दिखाते हुए                         उसने, उसके उत्तराधिकारी होने तथा परिवार में अकेला होने का                         सारा भेद मालूम कर लिया और उसके साथ हो लिया | दोनों में                         गाढी मित्रता हो गई, किंतु घर पहुँचते ही अशोक के साथ वह भी                         रोने लगा, अपने को उत्तराधिकारी कहने लगा | न्यायधीश चकराया,                         उसने व्यापारी के पुत्र को पहचानने की एक युक्ति निकाली |                         उसने व्यापारी का एक चित्र मंगवाकर, उसकी छाती की ओर इशारा                         करते हुए एक-एक तीर-कमान उनके हाथ में देकर निशाना लगाने को                         कहा | यह भी कहा जो ठीक निशाना लगायेगा, वही उत्तराधिकारी                         माना जायेगा | अशोक के साथी ने तो तीर ठीक निशाने पर छोड़                         दिया, परन्तु अशोक उन्हें फेंककर फोटो से लिपट गया | उसे                         देखकर उसके दिल में पिता के प्रति श्रद्धा-भाव जाग्रत हो गया                         | अशोक ने न्यायधीश से संपति उसे ही दे देने को कहा तथा अपने                         लिए पिता की निशानी माँगी | न्यायधीश ने समझकर कि असली                         उत्तराधिकारी कौन है, उसे उत्तराधिकारी घोषित किया और साथी                         को जेल भेज दिया | इस प्रकार के त्याग और श्रद्धा-भाव से उसे                         सर्वस्व प्राप्ति हो गई |
नादिरशाह                                                करनाल के मैदान में मुहम्मदशाह की                         सेना को परास्त करके दिल्ली पहुँचे | वहाँ दोनों ही बादशाह                         एक ही सिंहासन पर आसीन हुए | नादिरशाह ने मुहम्मदशाह से पीने                         के लिए पानी माँगा और वहाँ बजने लगा नगाडा, जैसे किसी उत्सव                         की शुरुआत होने जा रही है |
दस-बारह सेवक उपस्थित हो गए | किसी के हाथ में रुमाल था तो                         किसी के हाथ में खासदान | दो-तीन सेवक चाँदी के बड़े थाल को                         लेकर आगे बढे उसमें मणिक का कटोरा जल से भरा रखा था | ऊपर                         से दो सेवक कपड़े से उस परात को ढके हुए बराबर चल रहे थे |                         नादिर की समझ में यह नाटक न आया, वह घबरा गया, माँगा पानी                         था और यह क्या तमाशा होने जा रहा है | उसने पूछा- " यह सब                         क्या हो रहा है? " मुहम्मदशाह ने उत्तर दिया-"आपके लिए पानी                         लाया जा रहा है|" नादिर ने ऐसा पानी पीने से साफ इनकार कर                         दिया | उसने तुरंत अपने भिश्ती को आवाज लगाई | भिश्ती हाजिर                         हुआ, नादिर ने अपना लोहे का टोप उतारकर भिश्ती से पानी                         भरवाकर प्यास बुझाई| पानी पीने के बाद बड़े गंभीर स्वर में                         उसने कहा- " यदि हम भी तुम्हारी तरह पानी पीते तो ईरान से                         भारत न आ पाते |'
वीरता विलासिता और वैभव से नहीं, कठिन परिस्थितियों के                         अध्ययन से ही जन्मती और बढ़ती है |
रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी शारदामणि                         महिलाओं का अलग सत्संग चलाती थीं | उनमें अधिकांश धार्मिक                         प्रकृति की और संभ्रांत घरों की महिलाएं आती थीं |
एक महिला सत्संग में ऐसी भी आने लगी , जो वेश्या के रूप में                         कुख्यात थी| इससे अन्य महिलाएँ नाक-भौं सिकोड़ने लगीं और उसे                         न आने देने के लिए माता जी से आग्रह करने लगीं |
इस पर माता जी ने कहा- " सत्संग गंगा है | वह मछली, मेढकों                         के रहने पर भी अशुद्ध नहीं होती | तनिक-सी मलीनता से ही, जो                         अशुद्ध हो जाए वह गंगा कैसी ? तुम लोग सत्संग की शक्ति                         पहचानो और अपने को गंगा के समतुल्य मानो |"
स्वामी                         रामकृष्ण बगीचे में बैठे हुए                         ईश्वरचिंतन में लीन थे | इतने ही में डॉ. महेन्द्रनाथ सरकार                         इधर आए और उन्होंने स्वामी जी को बाग का माली समझकर , फूल                         तोड़ लाने को कहा | स्वामी जी मान-अपमान से परे निर्मल स्थिति                         में थे, उन्होंने तत्काल फूल तोड़कर डॉक्टर साहब को दे दिए                         | दूसरे दिन ये डॉक्टर साहब स्वामी जी को देखने आए, तब उन्हें                         अपनी भूल मालूम हुई और उनकी निराभिमानता पर द्रवित हो गए |
वस्तुतः महान संत-साधु व्यक्तियों की पहचान उनके                         अभिमानशून्य विनययुक्त स्वाभाव से ही की जाती है |
सम्राट वृष मातंग शील-साधुता में                         अद्वितीय थे, पर उन्हें क्रोध बहुत जल्दी आता था | एक बार                         उनकी परिचारिका तुषार ने उनकी सेवा-परिचर्या करने से इनकार                         कर दिया, बोली- " आपके शरीर से दुर्गन्ध आती है |" सम्राट                         क्षण भर को क्रोध में उबल पड़े, तभी उन्हें अपने आचार्य के                         ये वचन याद आ गए- " प्रशंसा और निंदा को समभाव से ग्रहण करने                         वाला व्यक्ति ही सच्चा योगी होता है |"
भिषगाचार्यों से दुर्गंध का कारण पूछा गया, शरीर को परीक्षा                         हुई | पता चला उनके दाँत में भयंकर रोग हो गया है | यदि एक-दो                         दिन में चिकित्सा न हुई तो वह असाध्य हो जायेगा | चिकित्सा                         हुई, वे स्वस्थ और दुर्गंध रहित हो गए | बडों की सीख याद                         रखने वाला अनर्थ से बच जाता है |
एक बार महात्मा ईसा अपने विचार प्रकट                         करने और प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक सभा में बुलाए गए                         | सभा में पहुँचते हीं उन्होंने देखा की वहाँ उपस्थित एक                         व्यक्ति हाथ की पीड़ा से बहुत कष्ट पाता हुआ कराह रहा है |                         महात्मा ईसा तुरंत उसका उपचार करने में लग गए | उनका यह                         कृत्य देख विरोधियों ने समझा की वे सभा की कार्यवाही से कतरा                         रहे हैं | निदान एक ने व्यंग्य करते हुए कहा - "ईसा ! तू तो                         शास्त्रार्थ करने आया है, फिर उस मुख्य कार्य को छोड़कर                         हकीमी कैसे करने लगा है ?"
महात्मा ईसा ने बड़े शांत भाव से उत्तर दिया- " क्या तुममें                         से कोई ऐसा है, जिसके एक ही भेड़ हो और वह कुएँ में गिर जाए                         तो वह सारा काम छोड़कर उसे निकालने न जाए? मेरा मुख्य काम                         तो पीडितों की सेवा करना है, लोगों का दुःख-दरद दूर करने का                         है | शास्त्रार्थ तथा व्याख्यान तो जीवन के साधारण                         कार्यक्रम हैं |"
साभार : www.awgp.org
1 टिप्पणी:
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